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युवा जोड़ी का ग्लैमर क्यों दिख रहा फीका होता?


-के.पी. सिंह/ राहुल-अखिलेश की युवा जोड़ी का ग्लैमर यूपी विधानसभा के चुनाव में फीका पड़ जाने के आसार बन रहे हैं, जिससे बहुत लोग संतप्त हो सकते हैं। उम्मीद थी कि तमाम ठहराव को तोड़कर यह जोड़ी ताजगी का संचार राजनैतिक माहौल में कर सकेगी, जो लोकतंत्र को स्फूर्ति प्रदान करेगा।
पीएम नरेंद्र मोदी को सत्ता में आये पौने तीन साल के तकरीबन वक्त हो चुका है। हकीकत के धरातल पर देखें तो इस दौरान ऐसा कुछ नहीं हुआ जिससे किसी को यह मुगालता पालना चाहिए कि देश बड़े परिवर्तन की राह पर चल पड़ा है, लेकिन इसे मायाजाल कहें या बहुत बारीक फरेब लोगों के मन में तो यही यकीन घर कर गया है कि मोदी के कारण देश बदल रहा है। अगर उन्हें यूपी सौंप दो तो वे प्रदेश बदल देंगे।
अखिलेश की यह बात तार्किक रूप से बहुत दमदार है कि भाजपा को उनके मुकाबिल यूपी में कोई चेहरा नहीं मिला जिसके चलते वह बिना चेहरे के चुनाव लड़ने को मजबूर है, लेकिन अंधविश्वास हो या सम्मोहन लोग किसी की कोई दलील सुनने को तैयार नहीं हैं। वाकपटुता में शालीनता की चासनी घोलते हुए अखिलेश के भाषण वाकई में मुंह से फूल झड़ने जैसा प्रभाव पैदा करने वाले होना चाहिए लेकिन मोदी के आगे उनका जादू पस्त पड़ गया, यह मानना ही पड़ेगा।
लोकतंत्र के न्यूक्लिस में संचारी भाव हावी होता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के हालिया चुनाव में इसका उदाहरण देखा जा सकता है जब सारे मीडिया सर्वे हिलेरी क्लिंटन की बढ़त को महसूस कर रहे थे लेकिन रातोंरात ऐसी हवा बदली कि जीत का सेहरा अंततोगत्वा डोनाल्ड ट्रम्प के माथे बंध गया। यूपी विधानसभा चुनाव के मामले में भी कुछ ऐसा ही है। पिछले वर्ष के उत्तरार्द्ध की शुरुआत में यूपी में नंबर एक पर बहुजन समाज पार्टी निर्विवाद रूप से छाई दिख रही थी क्योंकि कानून व्यवस्था की हालत इतनी खराब हो चुकी थी कि बहनजी ही लोगों को तृाण का एकमात्र विकल्प दिख रही थीं। वजह अपने शासनकाल में मायावती पर भ्रष्टाचार और तुगलकी फैसले लेने के आरोप चाहे जितने हों लेकिन कानून व्यवस्था के मामले में उनकी बेबाकी के कायल आम लोगों में उनके प्रतिद्वंद्वी दल से जुड़े व्यक्ति तक थे। मायावती ने भी मान लिया था कि महीने गुजरने के साथ-साथ उनके फिर से सिंहासन पर बैठने के इंतजार की घड़ियां बीतती जा रही हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी के सत्ता घराने में तलवारें खिंचीं जिसमें शुरु में अखिलेश पस्त नजर आये पर धीरे-धीरे उन्होंने लोगों को अपनी नियति में अभिमन्यु का अख्श दिखाकर उनकी हमदर्दी को अपने साथ ऐसा जोड़ा कि पार्टी के अंदर अपने ही पिता का उन्होंने तख्तापलट कर डाला। मुलायम सिंह उनसे लड़ने के लिए चुनाव आयोग तक गये तो लेकिन आखिर में पुत्रमोह ने उनको लाचार कर दिया। समाजवादी पार्टी को घरेलू विरासत के रूप में ढाल चुके सैफई परिवार में सिकंदर बनकर अखिलेश ने अपनी जो ब्रांडिंग की उससे विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने के पहले तक वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से बहुत आगे दिखने लगे थे। जिसमें कांग्रेस के साथ उनके गठबंधन की बेहद उत्तेजक भूमिका रही। अखिलेश की इस मामले में राजनैतिक दूरंदेशी की चारों ओर सराहना हो रही थी।
लेकिन प्रथम चरण के मतदान के दिन से मतदाताओं के संचारी भाव ने फिर पलटा खाया और अब अखिलेश के शुभचिंतकों के लिए मायूसी का समय है। राहुल हों या अखिलेश अपनी सेना का मनोबल युद्धभूमि में बनाए रखने के लिए अभी भी गठबंधन के सबसे आगे होने का सीना तो ठोंकेंगे लेकिन राजनीति के जानकारों के मन में आने वाले परिणाम को लेकर बेहद असमंजस की स्थिति बन चुकी है। भाजपा की हवा को मजबूत करने का काम ओबीसी के रुख ने किया है। प्रजापति समाज में गायत्री प्रजापति पहले ऐसे नेता हुए जिन्होंने अमेठी में ही वहां के राजपरिवार की हनक को अपने आगे बौना साबित कर दिया। गायत्री प्रसाद प्रजापति में लाख दोष हों लेकिन मुलायम सिंह इस मामले में सही कहते हैं कि कमजोर को उठाने के लक्ष्य के लिए उसके अवगुणों पर गौर नहीं किया जाना चाहिए। हिंदुस्तान में राजनीति प्रतीकों के सहारे होती है। जाहिर है कि अखिलेश के राज्य में कुम्हारों को वास्तविक तौर पर क्या मिला, यह दलील कुतर्क है। गायत्री प्रसाद प्रजापति की शख्सियत को मजबूती से उभारकर समाजवादी पार्टी ने जो काम किया उसका असर बहुत दूरगामी है और उम्मीद की जा रही थी कि इसके बाद प्रजापति समाज सपा का ऐसा मुरीद हो जाएगा कि किसी के बहकाने से वह हिलने वाला नहीं होगा।
लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि आज की जमीनी हकीकत में प्रजापति समाज के लोग भी भाजपा के साथ हैं। ओबीसी में राठौर समाज का भाजपा के साथ होना समझ में आता है लेकिन विश्वकर्मा, पांचाल, पाल, कुशवाहा, निषाद आदि सभी सचमुच की ओबीसी जातियां भाजपा के गुण गा रही हैं। भाजपा का आधार फिर भी सामान्य जातियों को माना जाता है। जो आरक्षण को न खत्म होने देने की मोदी की भरपूर हुंकार के बावजूद इसे खत्म करने के एजेंडे को इस मामले में जनमत संगठित करते हुए आगे बढ़ाने में लगा है। होना तो यह चाहिए था कि ओबीसी के घटक इससे बिदकते क्योंकि दलितों का आरक्षण तो मात्र 18 प्रतिशत है लेकिन ओबीसी का आरक्षण 27 प्रतिशत है इसलिए आरक्षण खत्म कराने की मुहिम दलितों से ज्यादा ओबीसी की दुश्मन है। लेकिन हैरत की बात है कि ओबीसी इस पर गौर नहीं कर रहा।
ओबीसी के इस कदर भाजपा के साथ नत्थी होने की वजह क्या है, यह एक पहेली बन गया है। गहराई से विश्लेषण किया जाए तो इसे समझने के लिए कुछ क्लूू हासिल किए जा सकते हैं। बामसेफ का आंदोलन वर्ण व्यवस्था से पीड़ित जातियों के आत्मसम्मान की लड़ाई का द्योतक था। इसलिए दलितों के आगे होने के बावजूद पिछड़ों ने इसमें अपना खून-पसीना सींचा और आंदोलन को इतना ताकतवर बनाया कि देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में दलित सत्ता सर्वाधिक मजबूत हो गई लेकिन मायावती ने ओबीसी का यह अहसान मानने की बजाय उलटा रास्ता पकड़ लिया। उन्होंने ओबीसी को एक किनारे कर उन लोगों को रिझाने की कोशिश की जो मनुवाद विरोधी उनकी मुहिम के निशाने पर थे। जाहिर है कि ओबीसी की जातियों ने इससे अपने को बसपा द्वारा ठगा जाना महसूस किया और इस चुनाव में अगर वे बसपा से सबसे ज्यादा दूरी बना रही हैं तो निश्चित रूप से इसकी जायज वजह  है। जहां तक समाजवादी पार्टी का प्रश्न है, यह पार्टी लोकदल के समय से ही ओबीसी की पार्टी मानी जाती है लेकिन प्रदेश में कुल मिलाकर जो चार बार इसकी सत्ता रही उसमें ओबीसी का पूरा कोटा एक जाति के लिए आरक्षित किया जाता रहा। ओबीसी के मन में इसलिए यह धारणा घर करती चली गई कि सपा की सरकार जब तक रहेगी तब तक उनके हितों पर कुठाराघात होता रहेगा। ओबीसी की एक को छोड़कर अन्य सभी जातियों को सरकारी नौकरी के मामले में 27 में से केवल 2 प्रतिशत आरक्षण पर संतोष करना पड़ेगा। मरता क्या न करता की तर्ज पर इस हालत में ओबीसी का भाजपा की ओर पलायन बहुत सहज है।
ओबीसी के गुमराह होने की दूसरी बड़ी वजह है कि उत्तर आधुनिकतावाद का सबसे ज्यादा अनुसरण करने वाली पार्टियां सपा और बसपा रहीं। एक समय इनमें काडर क्लास चलते थे और वैचारिक मामले में इन पार्टियों के कार्यकर्ताओं को बहुत स्पष्ट और पुख्ता बनाया जाता था। लेकिन जब ये पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कम्पनियों के रूप में तब्दील हो गईं तो इनका नेतृत्व विचारधारा आधारित काडर को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानने लगा। इसके चलते ओबीसी में धार्मिक चोंचले बढ़े और इस नाते मुसलमानों से धर्म को बचाने की जो हूक उनके मन में प्रबल हुई उसने उन्हें भाजपा को अपनी आराध्य पार्टी के रूप में देखने का अभ्यस्त बना दिया।
लोकतंत्र बेहतर व्यवस्था के अनुसंधान की प्रणाली है लेकिन देश के वर्ण व्यवस्थागत संस्कार इसकी बजाय वर्चस्व पर गौर करते हैं। भारत में राष्ट्रीयता के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा हर जाति द्वारा दूसरी सभी जातियों पर वर्चस्व कायम करने की अभिलाषा है जिसे चुनाव में भाग लेने वाली सभी पार्टियां रोकने की बजाय हवा देती हैं। घर में ही एक-दूसरे पर वर्चस्व बनाने की कुचेष्टा कितनी आत्मघाती बन जाती है भारत का इतिहास इसका गवाह है लेकिन आज तक इससे सबक नहीं लिया गया। सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन को कब्र में गाड़ने की सबसे दोषी समाजवादी पार्टी में अंततोगत्वा अखिलेश का नेतृत्व एक क्रांतिकारी बयार की तरह है जो काम  बोलता है के नारे के साथ वर्चस्व की भावना गौण करके व्यवस्था को सोच के केंद्र में लाने में भूमिका अदा कर सकता है। लेकिन लगता है कि उनके माध्यम से क्रांति की जिस आयोजना का खाका खींचा जा रहा था वह एक बार फिर से भ्रूण हत्या के लिए अभिशप्त साबित होने वाली है।

-के.पी. सिंह

उरई, जालौन (उ.प्र.)

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