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बड़े प्रचारक के रूप में उभरे अखिलेश यादव

उत्तर प्रदेश में चुनाव चल रहा है और अपने को बड़ा समाजवादी बोलने वाले शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, अरविंद केजरीवाल, शरद पवार, ममता बनर्जी जैसे दिग्गज गायब हैं। ऐसे में समाजवादियों की ओर से मोर्चा संभाल रखा है समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने। भले ही अनभुव और उम्र में वह इन नेताओं से बहुत छोटे हों पर विचारधारा, गंभीरता, छवि और ठहराव में इनसे आगे निकल गए हैं। पहले पार्टी और परिवार के झगड़े में अपने को साबित किया और अब अपने दम पर पार्टी का चुनाव प्रचार कर रहे हैं। वह बात दूसरी है कि किसी समय समाजवादी पार्टी में नेताजी के अलावा मो. आजम खां, शिवपाल यादव, अमर सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा तथा राजब्बर जैसे स्टार प्रचारक हुए करते थे।
इन चुनाव में जहां भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ सिंह, कट्टर हिन्दुत्व का चेहरा आदित्य नाथ, हेमा मालिनी और केशव प्रसाद जैसे स्टार प्रचारक रैलियां कर रहे हैं तो कांग्रेस में राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद और राजबब्बर जैसे स्टार प्रचारक हैं। बसपा में मायावती के साथ नसीमुद्दीन सिद्दिकी, सतीश मिश्रा जैसे स्टाचार प्रचारक हैं। वहीं सपा में अखिलेश यादव ने अपने साथ मात्र अपनी पत्नी व सांसद डिंपल यादव को रखा है। अखिलेश यादव की लोकप्रियता भी ऐसी कि आम चुनाव में भाजपा को एकतरफा जीत दिलाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे उन पर हमला बोलना पड़ रहा है। भले ही उन्होंने चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया हो पर मुख्य धारा में वह ही हैं। रोज ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं। पहले चरण के चुनाव प्रचार में मुख्य केंद्र बिंदू अखिलेश यादव ही रहे।
यह अखिलेश यादव की मजबूरी थी कि 2012 में मुख्यमंत्री बनने के बाद तमाम दबाव को झेलते हुए न चाहते हुए भी उन्हें कई तरह के समझौते करने पड़े। यही वजह रही कि विरोधी दल प्रदेश में चार मुख्यमंत्री होने की बात करने लगे थे। इसे अखिलेश यादव की विचारधारा कहें या फिर दृढ़ इच्छा कि सरकार के अंतिम दौर में उन्होंने पार्टी में जो स्टैंड लिया वह समाजवाद के लिए मिसाल बन गया। विचारधारा, पार्टी और प्रदेश के लिए वह न केवल व्यवस्था बल्कि अपने चाचा-पिता पार्टी के मुखिया से भी टकरा गए। समय-समय पर पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के दबाव में समझौते करने की वजह फजीहत झेलने वाले अखिलेश यादव ने जब निर्णय लिया तो राजनीतिक जगत को भौचक्का कर दिया। निर्णय भी ऐसा कि किसी भी कीमत में वह अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करेंगे। जिन परिस्थिति में अखिलेश यादव ने विचारधारा और व्यवस्था को लेकर दम भरा है, उनके इस निर्णय ने लोहिया जी के फैसलों की यादें ताजा कर दी। अपनी ही पार्टी में अन्याय का इस हद तक यदि किसी ने विरोध  किया है तो वह अखिलेश यादव हैं। निर्णय भी ऐसा कि अपने रुख के लिए पार्टी संस्थापक की भी एक न मानी।
5 नवम्बर को लखनऊ में मनाए गए समाजवादी पार्टी के स्थापना दिवस पर लोहिया जी के जब मैं मर जाऊंगा तब लोग मुझे याद करेंगे के कथन का हवाला देतेे हुए अखिलेश यादव के शिवपाल यादव की ओर इशारा करते हुए यह कहने पर कि 'कुछ लोग तब समझेंगे जब पार्टी में कुछ नहीं बचेगाÓ तो राजनीतिज्ञ पंडितों को सोचने पर मजबूर कर दिया। उन्हें भेंट की गई तलवार के बारे में कहा तलवार तो देते हो पर चलाने का अधिकार नहीं देते, ऐसा कहकर वह बहुत कुछ कह गए। जब उनसे प्रदेश अध्यक्ष का पद लेकर शिवपाल यादव को दिया गया तो वह बहुत कुछ समझ गया। उनके करीबी नेताओं को पार्टी से निकालने तथा टिकट काटने के बाद जब उन्होंने आक्रामक रुख किया तो पार्टी और विचारधारा को लेकर सड़क से लेकर कोर्ट तक लड़ाई  लड़ी और पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ली। नेताजी से साफ कह दिया कि अभी वह बहुत ज्यादा नहीं सुनेंगे। हां चुनाव के बाद सरकार के रूप में उन्हें गिफ्ट देंगे। परिवारवाद का आरोप झेलने वाली समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही अखिलेश यादव ने प्रदेश अध्यक्ष के पद पर परिवार से अलग नरेश उत्तम को बैठाया। किसी भी कार्यक्रम में वह परिवार के नेताओं से दूरी बनाकर रखते हैं। इन सबके बीच अखिलेश यादव के स्पष्ट स्टैंड से जहां साफ-सुथरी छवि वाले समाजवादियों में उनके प्रति आस्था बढ़ी है, वहीं राजनीति के क्षेत्र में करियर बनाने वाले युवा अखिलेश यादव की अगुआई में राजनीतिक सफर शुरू करने की सोचने लगे हैं। अखिलेश यादव को यह भी देखना होगा कि लंबे समय से समाजवादियों पर अपने पथ से भटकने के आरोप लग रहे हैं। आज की तारीख में देश जिस हालात से जूझ रहा है। ऐसे में सच्ची समाजवादी विचारधारा ही है जो न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि देश को भी विकास के रास्ते पर ले जा सकती है।

-चरण सिंह राजपूत

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